कि अब ढलता है सूरज, तो लगता है डर
गहराते है अँधेरे , काटता है यह घर
कि बस यह एक चिराग़ ही है , मुझे भरोसा है जिस पर
जो ग़र यह भी गया बुझ , तो बड़ी मुश्किल से होगी बसर
पर चिराग़ के तले भी अँधेरा है झाँकता
अब समझाता हूँ खुद को, ना ढूँढ़ तू उजाले
पर यह मन नहीं मानता ||
साये ही साये है इस अँधेरे में, जहाँ तक जाती है नज़र
है दीखता तो कुछ भी नहीं , ख़ामोशियाँ बुलाती है मग़र
इन ख़ामोशियाँ को सुन के , जाएँ तो जाएँ किधर
सन्नाटा है पसरा 1, अँधेरे है जगमगाते, बड़ी मुश्किल है डगर
और सहमा चिराग़ भी अब रोशनी है माँगता
अब समझाता हूँ खुद को, ना ढूँढ़ तू उजाले
पर यह मन नहीं मानता ||
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